६ मार्च, १९५७

 

आज मेरी आंख मुझे पढ़ने न देगी' । परन्तु गत सप्ताह मैंने जो पढा था उसपर मुझसे एक प्रश्न पूछा गया है, इस शाम मैं उसका उत्तर दूंगी । पवित्र, पढ दोगे, जरा?

 

           (पवित्र पढ़ते हैं) इस पैराग्राफका क्या मतलब है : ''स्वतंत्रता अपनी असीम एकतामें सत्ताका नियम है, समस्त प्रकृतिकी गुप्त स्वामिनी है : दासता सत्तामें प्रेमका नियम है, यह अनेकता- के अंदर अपनी अन्य आत्माओंकी क्रीडामें सहायता पहुंचाने- के लिये अपनी इच्छासे अपने-आपको अर्पित कर देती है ।', (विचार और झांकियां)

 

           ऊपरी दृष्टिको ये दोनों चीज़ें बिलकुल विरोधी और असंगत प्रतीत होती हैं । बाहरी तौरपर यह कल्पना भी नहीं की जा सकती कि एक ही समय- मे कोई स्वतंत्रता और दासतामें कैसे रह सकता है । परन्तु एक ऐसी मनोवृत्ति है जो दोनोंमें मेल बैठा देती है और उनके मेलसे पार्थिव जीवन- की एक बहुत ही सुखी अवस्थाका निर्माण करती है ।

 

          ' २७ फरवरीको केवल पुस्तक-पाठ हुआ और उसके बाद ध्यान, कोई वार्ता नहीं । गत 'दर्शन'के बादसे श्रीमांकि बायीं आंखमें हलका रक्त-स्राव था ।

 

४८


       जीवनके संपूर्ण विकासके लिये स्वतंत्रता एक प्रकारसे व्यक्तिकी नैसर्गिक मांग है, एक आवश्यकता है । अपने मु_ल रूपमें यह उच्चतम चेतनाकी पूर्ण रूपसे प्राप्ति है, 'एकत्व' और भगवान्के साथ संयोगकी अभिव्यक्ति है । और यह 'स्रोत' और चरितार्थताका असली मर्म है । और चूंकि एकत्व बहुमें (अनेकविधतामें) अभिव्यक्त हुआ है इसलिये किसी ऐसी चीज- की जरूरत थी जो इस मूल स्रोत और अभिव्यक्त सृष्टिके बीच कडीका काम कर सकें । और जिस पूर्णतम कडीकी कल्पना की जा सकती है वह है प्रेम । और प्रेमका पहला संकेत क्या है? अपने-आपको दे देना, सेवा करना । इसकी सहज, तुरत, अनिवार्य रूपसे उमड़ पड़नेवाली गति क्या होती है? सेवा करना । खुशी-खुशी, पूर्णरूपसे, समग्र आत्म-दानके सभा सेवा करना ।

 

         इस प्रकार, अपने शुंड रूपमे, अपने सत्यमें ये दोनों -- स्वतंत्रता और सेवाभाव - विरोधी होनेकी अपेक्षा कही अधिक पूरक है । परम सत्ताके साथ पूर्णतया एक हो जानेपर ही पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त होती है, क्योंकि समस्त अज्ञान, समस्त अचेतनता बन्धन है, ये तुम्हें शक्तिहीन, सीमित और असमर्थ बना देते हैं । अपने अंदर अज्ञानका थोड़ा-सा अंश भी एक सीमितता ले आता है और फिर व्यक्ति स्वतंत्र नहीं रहता । जबतक सत्ता- मे अचेतनताका तत्व है यह एक सीमितता है. एक बन्धन है । केवल परम सत्ताके साथ पूर्ण एकता पा लेनेपर ही पूर्ण स्वतंत्रता रह सकती है । और इस एकताको यदि सहज आत्म-दानके द्वारा -- प्रेमके उपहार-स्वरूप -- नहीं, तो भला और कैसे प्राप्त कर सकते है । और जैसा कि मैंने कहा प्रेमकी पहली चेष्टा, पहली अभिव्यक्ति है सेवा ।

 

         इस प्रकार 'सत्य'के अंदर ये दोनों घनिष्ठ रूपमें एक है । पर यहां पृथ्वीपर, अज्ञान और अचेतनाके इस संसारमें यह सेवा जिसे एक सहज- स्वाभाविक क्रिया होना चाहिये था, प्रेमपूर्ण और स्वयं प्रेमकी ही अभिव्यक्ति होना चाहिये था, एक लादी हुई चीज, एक अनिवार्य आवश्यकता बन गयी है जिसे अब केवल शरीर-निर्वाह एवं जीवन-यात्राके लिये करना पड़ता है । इस प्रकार यह एक भद्दा, दुःखद, अपमानजनक चीज बन गयी है । जिसे फूलके खिलनेका तरह आनन्दमय होना चाहिये था वह कुरूपता, थकान और घिनौना कर्तृत्व बन गयी है । और यह भावना, स्वतंत्रताका आवश्यकता भी विकृत होकर स्वाधीन रहनेकी ऐसी प्रयासमें परिणत हो गयी है, जो सीधे विद्रोह, पार्थक्य और एकाकीपनकी ओर लें जाती है ।और ये चीजों सच्ची स्वतंत्रताकी एकदम विरोधी हैं ।

 

       स्वाधीनता!... मुझे याद है मैंने एक ज्ञानी वृद्ध गुह्यवेत्ताको यह

 

सुन्दर उत्तर देते सुना था, उनसे किसीने कहा था : ''मैं स्वाधीन रहनाचाहता हू! मैं स्वाधीन प्राणी हू! मेरा अस्तित्व तभी है जब मैं स्वाधीन होऊं! '' और उन्होंने मुस्कराहटके साथ उत्तर दिया था : ''इसका मतलब हुआ कि तुमसे कोई प्यार नहीं करेगा, क्योंकि यदि तुमसे कोई प्रेम करे तो तुम तुरत उसके प्रेमके अधीन हो जाओगे ।''

 

      यह एक सुन्दर उत्तर है क्योंकि वस्तुत: प्रेम ही एकताकी ओर ले जाता है और यह एकता ही स्वतंत्रताकी सच्ची अभिव्यक्ति है । जो स्वतंत्रताके नामपर उच्छृंखलताका दावा करते हैं वे इस सच्ची स्वतंत्रताकी ओरसे पूरी तरह पीठ फेर लेते हैं, क्योंकि वे प्रेमसे इंकार करते है ।

 

     विकृति आती है जबर्दस्ती करनेसे ।

 

     कोई बाध्य होकर प्रेम नहीं कर सकता । किसीको प्रेम करनेके लिये बाध्य नहीं किया जा सकता -- तब वह प्रेम नहीं रह जाता । इसलिये जैसे ही बाध्यता बीचमें आती है, वह मिथ्यात्व बन जाता है । आंतरिक सत्ताकी सभी क्रियाएं सहज-स्वाभाविक क्रियाएं होनी चाहिये -- ऐसी सहज- स्वाभाविकता जो आंतरिक सामंजस्यसे, सहानुभूतिपूर्ण समझसे -- स्वेच्छासे किये गायें आत्मदानमें -- गभीरतर सत्यकी ओर सत्ताके सच्चे स्वरूप, हमारे 'स्रोत' और 'उद्देश्य'की ओर वापस मुड़नेसे आती है ।

 

४९